संघर्षशील ‘कर्मठता’ को मिलेगी कुर्सी!


कह रहे हैं कर्मठता को महत्व देंगे। मुखिया भी संकेत दे चुके हैं कि नेताओं के चक्कर काटने वालों का नंबर नहीं लगेगा। यानी अब संघर्ष करने वाले ‘सुख’ भोगेंगे। लाठी खाने वालों के हाथ में ‘डंडा’ होगा। और जिनके खिलाफ गैरजमानती धाराएं लगाई गई थीं, वे महत्वपूर्ण पदों पर बिठाए जाएंगे। राजधानी से लेकर गांव व कस्बों तक ऐसे लोगों की फेहरिस्त तैयार है। फिलहाल कांग्रेसी दिग्गजों के बोल यही हैं। वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से हुई बैठक का लब्बोलुआब भी यही है।
होना भी चाहिए। कार्यकर्ताओं की अपेक्षा यही रहती है। दिग्गजों ने कहा है तो होगा भी, बशर्ते समय के साथ शब्दों की राजनीतिक व्याख्या न बदली जाए। जैसा की अक्सर होता आया है। मसलन, कर्मठ कार्यकर्ता किसे कहेंगे? उसे जो पार्टी सिद्धांतों पर चलकर समाजहित के कार्य करता रहा, या उसे जिसने दोनों की तिलांजलि देकर इशारों की भाषा समझी! संघर्ष को कैसे परिभाषित करेंगे? जरूरतमंदों की आवश्यकता पूर्ति करना या नेताओं की आवश्यकता की पूर्ति के लिए जरूरतमंदों की जरूरतों को नजरअंदाज करना!
लाठी खाने व गैरजमानती धारा झेलने वालों में उन्हीं का ही नाम है ना, जो आंदोलनों के अगुवा रहे, किसानों के साथ संघर्ष किया। कहीं ऐसे कार्यकर्ताओं की जगह उन नामों ने तो नहीं ले ली, जिन्होंने १५ सालों में बदनामी कमाई! क्योंकि ऐसों को महत्वपूर्ण पद मिलेंगे तो कमाल हो जाएगा। होता/हो भी रहा है। हैं कुछ ‘हाथ’ थामकर छुरा चलाने वाले कलाकार भी। इस्पात नगरी ऐसे माहिरों की जमात से भरी पड़ी है। राजधानी भी इससे अछूती नहीं। यही उनके धंधे का फंडा है। इस फंडे के बिना उनका कारोबार नहीं चलता। कहीं ऐसे ही कर्मठ कारोबारियों की सूची तो नहीं है, जिसका जिक्र हो रहा!
सरकार में ‘राजा’ और ‘दाऊ राजा’ की जुबानी जंग बयानों से जग जाहिर है। इस बीच ५६ निगम-मंडल आयोगों में पद पाने वाले चेहरे से भी दोनों की ताकत का आकलन किया जाएगा। संभव है कि ‘अली बाबा’ ने अपनी पसंदीदा कुर्सियों पर पहले ही रुमाल रख दिए हों! सरकार के ‘ध्वज’ वाहक भी पीछे नहीं रहने वाले। यकीनन संघर्षरत कार्यकर्ता कुर्सी तक पहुंचे, न पहुंचे, लेकिन कुर्सी के लिए हुए संघर्ष की कहानी उन तक जरूर पहुंच जाएगी। ऐसा ही तो हुआ था विधानसभा चुनाव के दौरान, न्यायधानी में। आंदोलनों में दरी बिछाने वालों का नेतृत्व छत्तीसगढ़ प्रवास पर आए कर्मठ नौकरीपेशा को सौंप दिया गया। तब कर्मठता मायूस हुई थी। ऐसा न हो कि डेढ़ हजार आवेदनकर्ताओं में से बचे लोगों को संगठन की जिम्मेदारियां देकर फुसलाने का दौर चले और यह घड़ी पार्टी के लिए नाजुक साबित हो!
यदि ऐसे नाजुक दौर में ‘राजकुमार’ ने इंट्री मारी तो बाजी पलटते देर नहीं लगेगी। उन्हीं के निष्कासन बाद ही तो पिता ने नई पार्टी बनाई थी! वे पराए थोड़े ही हैं। जड़ें यहीं हैं। इसी पार्टी में। ‘शाखाएं’ अब ज्यादा मजबूत हो गई हैं। हवा का रुख परखने के लिए सूखे पत्ते पहले ही भेजे जा चुके हैं। संभवत: बिसात बिछाई जा चुकी होगी। आदतन चालें भी सोच रखी होंगी, ‘राजकुमार’ ने। कमजोरियों का बस्ता बना रखा होगा। रस्साकसी का नेतृत्व संभालने के लिए पूरा बंदोबस्त करके आएंगे। और पार्टी में उनकी सबसे बड़ी ताकत बनेंगे राजनीतिक व्याख्या से परे कर्मठ व संघर्षरत कार्यकर्ता। यही कांग्रेस के धुरंधरों के लिए बड़ी चुनौती होगी।
चुनौती तो यह भी है कि दाऊ की छत्तीसगढिय़ा सरकार गैर छत्तीसगढिय़ों का प्रभुत्व बढ़ता ही जा रहा है। कितने ही माननीयों ने यहां प्रवास पर ही पीढिय़ां गुजार दीं। इसके बाद भी मूल का मोह नहीं छोड़ पाए। उनके कर्मों की गंध इसे साबित करती है। इसके बावजूद छत्तीसगढिय़ों ने उन्हें सीने से लगाकर रखा है। कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने माटी में मिलकर खुद को संस्कृति में ढाल लिया। खानपान अपनाया और यहीं के होकर रह गए।
सरकार बनने के बाद माननीयों ने दो-दो, तीन-तीन विभाग की बागडोर संभालकर भाई-भतीजों को खूब सहूलियतें दीं। कोरोना काल में भी ऐसी विलासिता पर खर्च होने वाली रकम का ख्याल नहीं किया। एक भी ‘लाल बत्ती’ ने विलासिता नहीं त्यागी। सरकारी संपत्ति को पुश्तैनी समझकर रिश्तेदारों में बांट दिया। तंत्र ने जरूर आंखें मूंद रखीं हैं, लेकिन ‘कर्मठ कार्यकर्ता’ की नजरें उसी पर टिकी है। उसके पास हरेक सवाल का जवाब है, भले ही वह न पूछे, लेकिन प्रतिक्रिया देने से उसे कोई नहीं रोक सकता।
नजर तो इस पर भी रहेगी कि नागरिक आपूर्ति निगम, मार्कफेड, खनिज विकास निगम, हासिंग बोर्ड, ब्रेवरेज कार्पोरेशन जैसे मलाईदार पदों पर वे ही तो नहीं बिठाए जा रहे, जो कभी पंडालों में नहीं बैठे! क्योंकि उन अफसरों की कुर्सी तो आज भी वही है, जो कभी विपक्ष के निशाने पर रहे। उनका रुतबा भी कायम है। हालांकि ऑन लाइन बैठक में स्पष्ट कहा गया है कि चक्कर काटने वाले उम्मीद त्याग दें, परंतु ये सियासत के दांव हैं, घोड़ा ढाई घर चलकर किधर छलांग लगाएगा कोई नहीं जानता। फिर ‘चने’ की मात्रा का मोल तो बड़े से बड़े सियासी घोड़े की दिशा बदल देता है!
बहरहाल, नेताजी ने महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के कथन को दोहराया है- ‘अज्ञानता से ज्यादा खतरनाक एक चीज होती है, और वह है घमंड’। वैसे तो यह कहकर उन्होंने प्रधानसेवक पर निशाना साधा है, किन्तु पार्टी के ओहदेदार इसके भाव समझ जाएंगे तो इसे बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं पड़ेगी। चूंकि सत्ता का मद बहकाएगा। सिद्धांतों की व्याख्या बदलवाएगा। और यदि ऐसा हुआ तो एक बार फिर कर्मठता की बलि चढ़ जाएगी।
चोखेलाल
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