भारतीय संविधान समानता का अधिकार सबको देता है, न्याय सबके लिए सहज, सुलभ उपलब्ध है फिर ऐसा क्यों है कि, इस देश में एक ही न्याय प्रक्रिया के तहत धर्मस्थ स्थल कानून 1991 बहुसंख्यक हिंदू आबादी को उनके नैसर्गिक न्याय के अधिकारों से वंचित करता है और वक्फ बोर्ड कानून द्वितीय बहुसंख्यक आबादी को वक्फ बोर्ड कानून के तहत असीमित अधिकार प्रदान करता है। बहुसंख्यक हिंदू अपने धार्मिक स्थलों पर 1947 स्थिति को मानने के लिए बाध्य है पर दूसरी तरफ बहुसंख्यक आबादी के लिए 1947 की कोई समय सीमा की बाध्यता नहीं है। ऐसा कैसा कानून जिसमें कोई न्याय मांगने न्यायालय जा नहीं सकता और दूसरे के दावे ही न्याय है। ऐसे में कैसी सामानता ?कैसा सामानता का अधिकार? ये देश बटा क्यों? धर्म इसका आधार बना कैसे जब गंगा,जमुनी, तहजीब ने आपको बाध्य किया की ये देश धर्म निरपेक्ष रहेगा हर धर्म के नागरिकों को समान अधिकार रहेगा तो फिर कैसा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक? जब हर नागरिक समान है तो, फिर अलग-अलग धर्मावलंबियों के लिए अलग-अलग कानूनी प्रयोजन क्यों बनाए गए? धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में अल्पसंख्यक आयोग क्यों?जब आप धर्मनिरपेक्ष है तो फिर धर्म की मान्यताओं को अलग-अलग प्रावधानों से मान्यता क्यों? क्यों अल्पसंख्यक आयोग? क्यों हज की सब्सिडी? क्यों रोजा इफ्तार की पार्टियां? क्यों वास्तविक अल्पसंख्यकों पारसियों, सिक्खों, जैनों, बुद्धो की धार्मिक मान्यताओं की सरकारी मान्यताएं नहीं? क्यों वक्फ बोर्ड के दावों को कानूनी मान्यताएं? जब देश धर्म के आधार पर बटा तो फिर देश धर्मनिरपेक्ष कैसे? अर्ध सत्य कहने सुनने और समझने की कोई सीमा होगी या फिर किसी धर्म विशेष को विशेषाधिकार प्राप्त होगा और क्यों क्या यही अधिकार था द्विराष्ट्र का यदि गंगा, जमुनी, तहजीब का प्रभाव था तो फिर किस आधार पर देश बटा? यदि आधार धर्म का था तो फिर अभाव गंगा,जमुनी तहजीब का था अभाव में कैसा भाव जिस आधार पर देश बटा उस आधार की उपेक्षा क्यों?
धर्म ही यदि वजह थी देश के बंटवारे की तो फिर इस सत्य की अर्धसत्य स्वीकार्यता क्यों? क्या हम अपने आप को धोखा नहीं दे रहे, आज भी नहीं दे रहे यदि हम धर्मनिरपेक्ष हैं तो फिर ये निरपेक्षता कैसी जिसमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वाद की अवधारणा है। क्या हम सच में सच से मुंह नहीं फेर रहे ऐसा कैसा कानून हमने बना दिया जिसमें न्याय मांगने के अधिकारों को हनन कर दिया कोई अपने भूमि संपत्ति अधिकारों के लिए न्यायालय क्यों नहीं जा सकता और कोई अपने भूमि अधिकारों का सिर्फ दावा प्रस्तुत कर न्यायालय से बड़ा हो जाता है। 1991 की धर्मस्थल कानून और 1995 के वक्फ बोर्ड कानून में इतना अंतर क्यों क्या यही समानता की परिभाषा है? शाहबानों प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के फैसलों को संसद में बदलने की जरूरत पड़ी और क्यों ? ये बदला गया क्या इस बदलाव की वजह धार्मिक नहीं थी? जब एक बदलाव की वजह धार्मिक थी तो फिर किसी और धर्म विशेष की धार्मिक मान्यताएं द्वितीय प्राथमिकता में क्यों? धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक मान्यताएं क्यों मान्य नहीं? क्या देश में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक मान्यताओं का निरूपण सही से हुआ है । यदि इन मान्यताओं के बीच खाई है तो इसे खींचा किसने है ,कानूनी प्रावधानों से हो रहे सर्वे का विरोध क्यों हो रहा है?
क्या भारत की संवैधानिक व्यवस्थाओं में संवैधानिक प्रावधानों को नहीं मानना कानून का परिपालन है, यदि धार्मिक स्थलों के सर्वे का अधिकार और आदेश न्यायालय ने दिया है तो फिर उनके खिलाफ ये विरोध प्रदर्शन क्यों? क्यों इस बात की दुहाई दी जा रही है कि ये आदेश किसी धर्म विशेष के खिलाफ है,क्या भारत की धर्मनिरपेक्ष संविधान में अदालतें धर्म के हिसाब से फैसला करती हैं,क्या ये नहीं बताता कि हमने धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का ना तो पूरी तरह से परिपालन किया है, ना ही हम इस सिद्धांत को पूर्णतः मानते हैं। यदि हम धर्मनिरपेक्षता को मानते हैं तो हमें पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष होना पड़ेगा ,यदि धर्म ही सबसे बड़ा है तो फिर धर्मनिरपेक्षता की बातें क्यों? यदि धर्मनिरपेक्षता सबसे बड़ी है तो फिर धर्म सापेक्षता की बातें क्यों? क्या हम सही में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर चल पा रहे हैं या फिर इन मान्यताओं के बीच कहीं उलझे हुए हैं। यदि हम धर्मनिरपेक्ष हैं तो फिर धर्मों के बीच विद्वेष कैसा? हम क्यों ये निर्धारित नहीं कर पा रहे हैं कि हम इन चीजों का सापेक्ष भाव से मूल्यांकन कर सकें, क्या हमारी मान्यताएं या फिर हमारा पूर्वांनुभव इन बातों के मूल्यांकन से हमें रोकता है, सर्वें इसी प्रक्रिया के तहत होंगे फिर क्या कारण है कि हम सर्वे के विरोध में ही खड़े हो रहे-----------------धर्मनिरपेक्ष तो हो गए पर धर्मनिरपेक्षता को समझ नहीं पाए।
चोखेलाल
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मुखिया के मुखारी में व्यवस्था पर चोट करती चोखेलाल
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