कहां खो जाती है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले कलमकारों की घटनाएं

कहां खो जाती है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले कलमकारों की घटनाएं

परमेश्वर राजपूत, गरियाबंद  :  लोकतंत्र में पत्रकारों को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। और पत्रकार साथी अपने अपने स्तर पर समाज की समस्याओं से लेकर सरकार की योजनाओं जनता और सरकार तक पहुंचाने का काम मिडिया के माध्यम से करते हैं। जब कोई पत्रकार साथी अच्छा काम करते हैं तो उसके कार्यों को देखते हुए सम्मानित और पुरस्कृत भी करते हैं। लेकिन वही पत्रकार अगर किसी घटना का शिकार हो जाते हैं और इसमें उनकी जान चली जाती है तो कुछ पत्रकार साथी व संगठन श्रद्धांजलि अर्पित कर नमन करते हुए परिवार के प्रति संवेदना प्रकट करते हैं। तो वहीं कुछ राजनेता व जनप्रतिनिधि उस मुद्दे को भुनाने से भी नहीं चुकते। और कुछ महीनों बाद नेता, सरकार और मिडिया के बीच से ओ घटनाएं कहीं खो जाती है।

आखिर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ समझे जाने वाले पत्रकारों के प्रति प्रशासन और सरकार का इतना ही जिम्मेदारी है? अगर हम छत्तीसगढ़ में पिछले पंद्रह सालों की ही बात करें तो 2010 में बिलासपुर के युवा पत्रकार शुशील पाठक 2011 में गरियाबंद जिले के छुरा नगर के 32 वर्षीय पत्रकार उमेश राजपूत 2025 में बस्तर के युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई। जिसमें शुशील पाठक और उमेश राजपूत हत्याकांड में आज पंद्रह वर्षों बाद भी किसी अपराधी को सजा नहीं हुई। वहीं मुकेश चंद्राकर हत्याकांड में कुछ आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है लेकिन अब उन्हें कितने दिनों की सजा हो पाएगी ये आने वाले दिनों में ही पता चल पाएगा।

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  घटना के समय छत्तीसगढ़ में जिस राजनीतिक पार्टी की सरकार रही वे भी इसे गंभीरता से नहीं लिए, बता दें कि 2010-11 में शुशील पाठक और उमेश राजपूत की गोलीमार कर हत्या की गई तो प्रदेश में बीजेपी की सरकार रही और डॉ रमन सिंग मुख्यमंत्री रहे। राजनितिक पार्टियां अपने सरकार के अच्छे कार्यों का बखान तो करते हैं योजनाओं को गिनाने में पीछे नहीं रहते और वोट भी मांगते हैं और उनका राजनीतिक लाभ भी उन्हें मिलता है लेकिन क्या उनके सरकार के कार्यकाल में हुए घटनाओं को लेकर उन्हें त्वरित निराकरण कर उन्हें न्याय के लिए सोचते हैं आखिर क्यों नहीं?

वहीं कांग्रेस सरकार जब विपक्ष में रहती है तो इन्ही मुद्दे को भुनाने लगे रहते हैं और सरकार को लेकर कोसते हैं। लेकिन बीजेपी के बाद कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार भी प्रदेश की सत्ता में पांच साल रही जबकि विपक्ष में रहते हुए इन्ही मुद्दे पर सरकार को उनके कई नेता घेरते हुए विधानसभा में भी इन मुद्दों को उठाते हैं लेकिन कांग्रेस की सरकार बनने के बाद पिड़ित परिजनों ने मुख्यमंत्री तक इस घटना को लेकर न्याय हेतु आवेदन दिया था लेकिन कांग्रेस सरकार भी इस पर चुप्पी साधे रही।वहीं आज फिर से प्रदेश में बीजेपी की विष्णु देव की सरकार है और जिसे विष्णु देव साय का शुसासन से संबोधित किया जाता है लेकिन ये कैसा शुसासन कि अपने ही सरकार के कार्यकाल में हुए घटनाओं का पंद्रह साल बाद भी न्याय व निराकरण नहीं हो सके?

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ समझे जाने वाले पत्रकारों के परिजनों ने पैसे की मांग तो नहीं की न्याय की मांग की, लेकिन दोनों ही सरकार इस कलम के सिपाहियों को न्याय दिलाने में असफल रहे। और पिड़ित परिजनों को आज भी न्याय की आस में न्यायालय के चक्कर लगाने मजबूर देखने को मिलता है। छत्तीसगढ़ में चुनावों के पहले कांग्रेस सरकार में भूपेश बघेल और बीजेपी सरकार में विष्णु देव साय दोनों ही पार्टियां जीत के बाद पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने का वादा करने से पीछे नहीं रहे लेकिन कांग्रेस सरकार का कार्यकाल तो खत्म भी हो गया और बीजेपी सरकार का कार्यकाल अभी जारी है लेकिन पत्रकार सुरक्षा कानून जिस प्रकार लागू होना चाहिए ओ अभी तक साफ नहीं हो पाया इसमें अभी भी कुछ बिंदुओं को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है और जो कानून लागू किया गया उससे कुछ कानून के जानकार और पत्रकार दोनों ही संतुष्ट नहीं हैं।

आखिर घटनाओं में जान गंवाने वाले पत्रकारों और परिजनों को ऐसे ही न्याय पाने की आस में न्यायालय के चक्कर लगाते भटकना होगा? या प्रशासन, सरकार और न्यायपालिका की कुछ जिम्मेदारियां बनती हैं यह बड़ा गंभीर और सोचनीय विषय प्रतीत होता है। वहीं ऐसे ही और भी कई बड़ी हत्याएं और घटनाएं हैं जिनकी फाइलें आज़ न्यायालय में लंबित हैं और परिजन न्यायालय के चक्कर लगाने मजबूर हैं और सरकार और प्रशासन उसमें अपनी कोई जवाबदेही नहीं समझता और उनका आखिरी वाक़्य यही होता है कि ओ न्यायालय में है उस पर अभी कुछ नहीं कह सकते न्यायालय जरूर न्याय देगा। लेकिन देर से न्याय अन्याय नहीं? इस न्याय का कोई औचित्य है? कि न्याय पाने के लिए न्यायपालिका की शरण में जाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाये और न्याय मिले? सजा पाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाये और न्याय मिले? क्या हमारे लोकतंत्र में न्याय पाने के लिए ऐसी व्यवस्था उचित है?

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