पांच दशक पहले, 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया था जिसने देश की राजनीति का भविष्य और भूगोल दोनों ही बदल दिया था. उससे पहले केंद्र में और अधिकतर राज्यों में भी एक ही पार्टी, कांग्रेस की सरकारें होती थीं.
लेकिन इस फैसले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने उस समय की सर्व शक्तिमान कही जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के उत्तर प्रदेश में रायबरेली से लोकसभा के चुनाव को न सिर्फ रद्द कर दिया था, बल्कि अगले छह सालों तक कोई भी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था.
इसके बाद के घटनाक्रमों में इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता को बरकरार रखने की गरज से 25-26 जून की आधी रात को देश को इमरजेंसी के हवाले कर लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताला जड़ने की कोशिश की थी. हालांकि 21 महीनों के बाद उन्होंने ही देश में लोकसभा के चुनाव करवाकर इमरजेंसी को हटाया भी था. मार्च 1977 में हुए लोकसभा के चुनाव में उनकी पार्टी, कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा था. वह स्वयं रायबरेली से तथा उनके छोटे बेटे संजय गांधी अमेठी से चुनाव हार गए थे.
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12 जून, 1975 कांग्रेस के लिए अशुभ
इसके बाद से केंद्र में और तमाम राज्यों में भी कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व टूटा था. केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी. इसी तरह से तमाम राज्यों में भी सत्ता परिवर्तन हो गया था. उसके बाद से तो केंद्र और राज्यों में भी सत्ता बदलते रहने का क्रम शुरू हो गया था.
दरअसल, 12 जून, 1975 का दिन इंदिरा गांधी और कांग्रेस के लिए बहुत ही अशुभ साबित हुआ. इस दिन उन्हें मिलने वाली तीन अशुभ सूचनाओं ने इंदिरा गांधी को बहुत व्यथित और परेशान किया. उनकी मित्र पुपुल जयकर इंदिरा गांधी: एक जीवनी (पृष्ठ 270) में लिखती हैं कि 12 जून की सुबह नाश्ते की मेज पर बैठीं इंदिरा गांधी को उनके विश्वस्त अतिरिक्त निजी सचिव आरके धवन ने बताया कि दिल का दौरा पड़ने के कारण उनके बेहद करीबी सलाहकार, नौकरशाह और राजनयिक, सोवियत रूस में भारत के राजदूत दुर्गा प्रसाद धर का निधन हो गया.
कुछ दिन पहले ही 57 वर्षीय धर किसी आवश्यक मसले पर विमर्श के लिए इंदिरा गांधी के बुलावे पर मास्को से दिल्ली आए थे. धर के निवास पर उन्हें श्रद्धांजलि देकर लौटी इंदिरा गांधी संभल भी नहीं पाई थीं कि परेशान करने वाली दो और सूचनाएं- इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला और गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों के रुझान- उनका इंतजार कर रही थीं.
UNI के टेलीप्रिंटर पर न्यूज फ्लैश से मिली जानकारी
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी पुस्तक इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी में लिखते हैं, 12 जून की सुबह दस बजे प्रधानमंत्री कार्यालय में यूएनआई (यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया) के टेलीप्रिंटर पर फ्लैश न्यूज की घंटी बजते ही इंदिरा गांधी के निजी सचिव एनके शेषन ने जाकर देखा, इंदिरा गांधी अपदस्थ, उनका चुनाव रद्द. शेषन ने वह पेज फाड़ा और उस कमरे की ओर भागे जहां इंदिरा गांधी बैठी थीं. कमरे के बाहर उनके बड़े, पायलट पुत्र राजीव गांधी मिल गए. शेषन ने उन्हें फ्लैश न्यूज का वह टुकड़ा थमा दिया. राजीव ने उसे दिखाते हुए अपनी मां से कहा, उन्होंने आपको अपदस्थ कर दिया है. तभी एक और फ्लैश आया कि वह छह वर्षों तक कोई चुनाव नहीं लड़ सकतीं.
फैसले से माहौल गमगीन हो गया. इंदिरा गांधी गंभीर, निर्विकार थीं. थोड़ी देर में उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों, मुख्यमंत्रियों, कांग्रेस के बड़े नेताओं का वहां जमावड़ा शुरू हो गया. इसके कुछ देर बाद ही गुजरात विधानसभा के चुनावी नतीजों के कांग्रेस विरोधी रुझान भी मिलने शुरू हो गए थे. इन दो फैसलों ने देश की राजनीति की दशा और दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इन दोनों फैसलों से इंदिरा गांधी और उनकी सत्ता पर दोहरी और निर्णायक चोट पड़ी.
12 जून की सुबह दस बजे हुआ पहला ऐतिहासिक अदालती फैसला निजी तौर पर इंदिरा गांधी के राजनीतिक भविष्य के लिए बड़ा महत्वपूर्ण और सांघातिक कहा जा सकता था. समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के सख्त और ईमानदार छवि के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी मानते हुए रायबरेली से उनके लोकसभा चुनाव को अवैध करार दे दिया. उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करने के साथ ही अदालत ने अगले छह साल तक उनके चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी.
राज्यसभा भी जाने का रास्ता बंद
ऐसी स्थिति में इंदिरा गांधी के पास राज्यसभा में जाने का रास्ता भी नहीं बचा. अब उनके पास इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील करने, प्रधानमंत्री पद छोड़ने के सिवा और कोई तीसरा लोकतांत्रिक रास्ता नहीं बचा था. कई जानकार मानते हैं कि 25-26 जून, 1975 की आधी रात से इमरजेंसी लागू होने की जड़ में यही फैसला था.
दूसरा फैसला गुजरात की जनता का था, जो उसी दिन शाम को आया. लेकिन उसके रुझान दिन में 11 बजे के बाद से ही मिलने लगे थे. विधानसभा के चुनाव में गुजरात के लोगों ने कांग्रेस को खारिज कर जनता मोर्चा के नाम से साझा विपक्ष को सरकार बनाने का जनादेश दिया. जनता मोर्चा में संगठन कांग्रेस, भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, लोकदल, रिपब्लिकन पार्टी आदि शामिल थे. 182 सदस्यों की विधानसभा में जनता मोर्चा को 88 और कांग्रेस को 75 सीटें मिली थीं जबकि चुनाव से पहले इसके पास 140 सदस्य थे.
कांग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़े पूर्व मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल के मजदूर किसान लोक पक्ष को 12 सीटें मिली थीं. चिमन भाई पटेल और उनकी पार्टी ने भी जनता मोर्चा को समर्थन दे दिया था. संगठन कांग्रेस के गांधीवादी नेता बाबू भाई जसू भाई पटेल गुजरात में पहली जनता सरकार के मुख्यमंत्री बने थे. हालांकि इमरजेंसी लागू होने के बाद, मार्च, 1976 में चिमन भाई पटेल के पाला बदलने और जोड़-तोड़ के जरिए उनकी सरकार गिरा दी गई थी.
क्या था राजनारायण का मुकदमा ?
मार्च 1971 में हुए संसदीय आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी. कुल 518 सीटों में से कांग्रेस को दो तिहाई से भी ज्यादा (352) सीटें हासिल हुई थीं. इस चुनाव में इंदिरा गांधी लोकसभा की अपनी पुरानी सीट, उत्तर प्रदेश के रायबरेली से एक लाख से भी ज्यादा वोटों से चुनी गई थीं. लेकिन चुनाव हारे, उनके संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने उनकी इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी.
समाजवादी अधिवक्ता रमेश चंद्र श्रीवास्तव के जरिए 15 जुलाई, 1971 को दायर अपनी चुनाव याचिका में राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर चुनाव में भ्रष्टाचार के साथ ही सरकारी मशीनरी और संसाधनों के दुरुपयोग का आरोप लगाया और इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने तथा उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित करने की मांग की. शुरू में तो लोगों ने, यहां तक कि विपक्ष के नेताओं ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया और माना कि राजनारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ निजी खुन्नस के चलते याचिका दायर की है.
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लेकिन बाद में इस मुकदमे में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं संगठन कांग्रेस के कोषाध्यक्ष शांति भूषण ने चुनाव से संबंधित दस्तावेजों के अवलोकन के बाद बताया कि याचिका में दम है. वह भी राजनारायण के वकील के तौर पर इस मुकदमे से जुड़ गए. उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार में सरकारी कर्मचारियों और सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल किया है. शांति भूषण ने इसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके ओएसडी (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) यशपाल कपूर का उदाहरण दिया.
कपूर ने राष्ट्रपति के यहां से अपना इस्तीफा मंजूर होने से पहले ही रायबरेली में इंदिरा गांधी के चुनाव अभियान में हिस्सा लिया था. इस मुकदमे में इंदिरा गांधी के वकील थे, प्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता कन्हैया लाल मिश्र लेकिन बाद के दिनों में उनकी सेहत खराब हो जाने के कारण कांग्रेस के स्थानीय नेता और बड़े वकील सतीश चंद्र खरे को यह जिम्मेदारी दी गई. खरे 1974 में इलाहाबाद (यमुनापार) से हुए संसदीय उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार भी बने लेकिन समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र के हाथों पराजित हो गए थे.
अदालत में प्रधानमंत्री की पेशी
राजनारायण की चुनाव याचिका पर सबसे पहले जस्टिस बी एन लोकुर ने सुनवाई की थी. बाद में यह मामला जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की बेंच में ट्रांसफर हो गया था. साढ़े तीन साल तक चली सुनवाई में दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए समन जारी कर अदालत में तलब किया. 18 मार्च, 1975 की तारीख तय की गई.
आजाद भारत के इतिहास में यह पहला ही मौका था, जब किसी मुकदमे में किसी मौजूदा प्रधानमंत्री को अदालत ने समन जारी किया और उसे अदालत में पेश होना पड़ा. उस समय के प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि सुरक्षा के बेहद कड़े इंतजामों के मद्देनजर कोर्ट रूम में सिर्फ वैध पास वालों को ही एंट्री दी जा रही थी. इसके बावजूद कोर्ट रूम ठसाठस भरा था. जितने लोग कुर्सियों पर बैठे थे, तकरीबन उतने ही खाली जगहों पर खड़े भी हुए थे. उस दिन सुबह करीब साढ़े दस बजे जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा जैसे ही चैंबर से कोर्ट में आए, लोग उनके सम्मान में खड़े हो गए.
फिर सरकारी वकील ने जस्टिस सिन्हा से सवाल किया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब कोर्ट रूम में दाखिल होंगी तो सामने बैठे वकीलों और बाकी लोगों का रवैया क्या होगा, क्योंकि अदालत में सिर्फ जज के आने पर ही उनके सम्मान में खड़े होने की परंपरा है. जस्टिस सिन्हा के जवाब से पहले राज नारायण के वकील शांति भूषण ने कहा कि इंदिरा गांधी यहां प्रधानमंत्री की हैसियत से नहीं, बल्कि एक आरोपी की हैसियत से पेश होंगी, इसलिए लोगों का रवैया वही होना चाहिए, जो बाकी आरोपियों की अदालत में पेशी के समय होता है.
जस्टिस सिन्हा ने भी शांति भूषण की इस दलील को मंजूर करते हुए यह निर्देश दिया कि इंदिरा गांधी के आने पर कोई भी अपनी जगह पर उठकर खड़ा नहीं होगा. कुछ ही पलों बाद इंदिरा गांधी मेटल डिटेक्टर से गुजरते हुए कोर्ट रूम में दाखिल हुईं. उन्होंने पहले हाथ जोड़े और सिर को थोड़ा सा झुकाकर जस्टिस सिन्हा का अभिवादन किया, फिर सामने की तरफ नजर उठाई. लेकिन बेहद ताकतवर समझी जाने वालीं प्रधानमंत्री के पहुंचने पर भी कोर्ट रूम में जस्टिस सिन्हा के सामने कुर्सियों पर बैठे लोगों में से कोई अपनी जगह से नहीं हिला.
कोर्ट अर्दली ने इंदिरा गांधी को कटघरे में आने का इशारा किया. वह कटघरे में कुछ देर यूं ही खड़ी रहीं, फिर उनके वकील खरे की गुजारिश पर जस्टिस सिन्हा ने उन्हें एक कुर्सी मुहैया कराई और बैठे-बैठे ही जवाब देने की इजाजत भी दी.
राजनारायण के अधिवक्ता रहे रमेश चंद्र श्रीवास्तव ने इलाहाबाद में उनके निवास पर हुई एक मुलाकात में इस लेखक को बताया, कोर्ट रूम में पहले जस्टिस सिन्हा ने गांधी से कुछ सवाल किए. इसके बाद कोर्ट की इजाजत से राजनारायण की ओर से शांति भूषण ने उनसे पूरे चार घंटे और बीस मिनट तक जिरह किया. ज्यादातर सवालों के जवाब खुद इंदिरा गांधी ने ही दिए, जबकि कुछ मामलों में उनकी तरफ से उनके वकील सतीश चंद्र खरे ने उनका पक्ष रखा.
कोर्ट में 5 घंटे तक रहीं इंदिरा गांधी
बाद में, जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस बने श्रीवास्तव के अनुसार कोर्ट रूम में इंदिरा गांधी करीब पांच घंटे तक रहीं, लेकिन उनके वकील को छोड़कर इस दौरान कोई भी उनके पास नहीं गया. शांति भूषण के तीखे सवालों से वह कई बार नर्वस भी हुईं, लेकिन ज्यादातर सवालों का जवाब उन्होंने बेबाकी से दिया. उनके माथे पर कई बार पसीने की बूंदें भी साफ नजर आईं. तीन-चार बार तो उन्हें रुमाल का सहारा भी लेना पड़ा. कोर्ट रूम में उन्होंने कई बार पानी भी पिया.
करीब पांच घंटे की सुनवाई के बाद जब वह वापस जाने लगीं, तब भी कोर्ट रूम में मौजूद कोई भी शख्स अपनी जगह से खड़ा नहीं हुआ. उनके वकील सतीश चंद्र खरे इस बार जरूर उनके साथ बाहर निकले. कोर्ट रूम के बाहर तमाम लोग इंदिरा गांधी से मिलने के लिए खड़े हुए थे. लेकिन वह किसी से भी नहीं मिलीं और सीढ़ियां उतरने के बाद सीधे अपनी कार में बैठकर निकल गईं.
बाहर हाईकोर्ट के गेट पर उन्हें प्रदर्शनकारियों का सामना भी करना पड़ा था. मुझे अच्छी तरह से याद है कि हम समाजवादियों ने हाईकोर्ट के उस गेट पर, जहां से गांधी का काफिला बाहर निकलने वाला था, उन्हें काले झंडे दिखाने की योजना बनाई थी. प्रधानमंत्री के साथ सुरक्षा के कड़े इंतजामों के मद्देनजर यह काम असंभव सा था. लेकिन इसे संभव बनाया गया. सफेद कुर्ते के नीचे काले झंडे लेकर हम लोग एक-एक कर नियत समय और निर्धारित स्थान पर पहुंच गए. इंदिरा के काफिले के बाहर निकलते ही हम लोगों ने काले झंडों के साथ उनके विरोध में नारेबाजी शुरू कर दी. पुलिस, पीएसी के जवानों ने प्रदर्शनकारियों का स्वागत लाठी-डंडों से किया और फिर बगल के सिविल लाइंस थाने की हवालात में ठूंस दिया.
जस्टिस सिन्हा को लुभाने की कोशिश
इंदिरा गांधी की पेशी और दो और तारीखों पर सुनवाई के दौरान अदालत के रुख को देखकर ही उन्हें और उनके समर्थकों को अंदाजा लगने लगा था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला उनके खिलाफ जा सकता है. ऐसे में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिशें भी शुरू हुईं. इलाहाबाद हाई कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस डीएस माथुर, इंदिरा गांधी के निजी डॉक्टर के पी माथुर के करीबी रिश्तेदार थे.
जस्टिस सिन्हा के घर पर जस्टिस माथुर, अपनी पत्नी के साथ पहुंचे. उन्होंने जस्टिस सिन्हा से कह दिया कि अगर वो राजनारायण वाले मामले में सरकार के अनुकूल फैसला सुनाते हैं, तो उन्हें तुरंत सुप्रीम कोर्ट में जज बनाकर भेज दिया जाएगा. लेकिन इसका जस्टिस सिन्हा पर कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें क्या करना है. जस्टिस सिन्हा पर फैसला टाल देने से लेकर कई अन्य तरह के दबाव भी बनाए गए.
शांति भूषण के बेटे और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण अपनी पुस्तक दि केस दैट शूक इंडिया (पृष्ठ 94-95) में लिखते हैं, जस्टिस सिन्हा अपना फैसला सुकून के माहौल में लिखना चाहते थे. लेकिन जैसे ही अदालत बंद हुई, इलाहाबाद के एक कांग्रेसी सांसद रोज-रोज उनके घर आने लगे. इस पर सिन्हा को उनसे कहना पड़ा कि वे उनके यहां न आएं. जब इसका भी कोई असर नहीं हुआ तो वह अपने घर में ही गायब हो गए. उनके यहां आने वाले हर किसी से कहा गया कि वे उज्जैन अपने भाई के यहां गए हैं. इस दौरान उन्होंने एक फोन कॉल तक रिसीव नहीं किया.
प्रशांत भूषण लिखते हैं, जस्टिस सिन्हा ने सात जून तक अपना फैसला डिक्टेट कर दिया था. तभी उनके पास चीफ जस्टिस माथुर का देहरादून से फोन आया. यह फोन चीफ जस्टिस का था, इसलिए उन्हें उनसे बात करनी पड़ी. माथुर ने उनसे कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय में कानूनी मामलों को देखने वाले अतिरिक्त सचिव पीपी नैयर ने उनसे अनुरोध किया है कि फैसले को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जाए ताकि उससे 8 जून को होने वाले गुजरात विधानसभा का चुनाव प्रभावित नहीं हो. वह चाहते थे कि फैसला हाईकोर्ट में ग्रीष्मावकाश के बाद जुलाई में सुनाया जाए.
निजी सचिव के पीछे पड़ी CID
माथुर ने नैयर के हवाले से यह संकेत भी दिया कि हिमाचल प्रदेश में मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने के लिए उनके नाम पर विचार हो रहा है. प्रशांत भूषण लिखते हैं, यह सुनते ही जस्टिस सिन्हा नाराज से हो गए. वह तुरंत हाईकोर्ट गए और रजिस्ट्रार को आदेश दिया कि वे दोनों पक्षों को सूचित कर दें कि फैसला 12 जून को सुनाया जाएगा. हालांकि प्रशांत भूषण के अनुसार 12 जून की तिथि भी उन्होंने यह ध्यान रखकर तय की कि उस समय तक गुजरात में मतदान प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी.
सरकार के लिए यह फैसला कितना महत्वपूर्ण था, यह इस बात से भी साफ होता है कि उसकी भनक भर पाने के लिए जस्टिस सिन्हा के पीछे सीआईडी लगा दी गई थी. प्रशांत भूषण के अनुसार सीआईडी के एक दल को इस बात की जिम्मेदारी दी गई थी कि किसी भी तरह यह पता लगाया जाए कि जस्टिस सिन्हा क्या फैसला देने वाले हैं? वे लोग 11 जून की देर रात सिन्हा के निजी सचिव मन्ना लाल के घर भी गए. लेकिन मन्ना लाल ने उन्हें एक भी बात नहीं बताई.
दरअसल, जस्टिस सिन्हा ने पहले ही मन्ना लाल को सचेत कर दिया था कि फैसले की भनक किसी को, यहां तक कि उनके परिवार के लोगों को भी नहीं लगनी चाहिए. काफी बहलाने-फुसलाने के बाद भी जब मन्ना लाल कुछ बताने के लिए तैयार नहीं हुए तो सीआईडी वालों ने उन्हें धमकाया, हम लोग आधे घंटे में फिर वापस आएंगे. हमें फैसला बता दो, नहीं तो तुम्हें पता है कि तुम्हारे लिए अच्छा क्या है. लेकिन मन्ना लाल ने उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगने दी और फैसले की घड़ी आ गई.
फैसला खिलाफ आने की थी आशंका
वैसे, मन्ना लाल चाहकर भी कुछ नहीं बता सकते थे क्योंकि जस्टिस सिन्हा ने फैसले के महत्वपूर्ण अंशों को अंतिम क्षणों में जोड़ा था. इंदिरा गांधी और उनके करीबी लोगों को इस बात का एहसास हो गया था कि जस्टिस सिन्हा किस तरह का फैसला सुनाने वाले हैं. पुपुल जयकर ‘इंदिरा गांधी : एक जीवनी’ (पृष्ठ 267) में लिखती हैं, फैसले से पहले मैं इंदिरा गांधी से मिली थीं. 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को लेकर वह काफी असहज और डरी लग रही थीं. उन्होंने कहा था कि जून के अंतिम सप्ताह में मेरे साथ मेक्सिको में होने वाली मुलाकात बहुत कुछ इस फैसले पर भी मुनस्सर करेगी. यह कहते हुए वह बहुत गंभीर थीं. उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है.
उस समय प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार रहे एच वाई शारदा प्रसाद के पुत्र रवि वी शारदा प्रसाद अपने पिता की उस समय की डायरियों के हवाले से 13, जून 2022 को ओपन पत्रिका में लिखते हैं जैसे ही पता चला कि जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का 12 जून का फैसला उनके विरुद्ध जा सकता है, इंदिरा गांधी ने फोन कर सिद्धार्थ शंकर रे से 11 जून तक दिल्ली आने को कहा. ताकि उस आशंकित फैसले के विरुद्ध अगली रणनीति तैयार की जा सके. रे दो दिन पहले ही 10 जून को ही दिल्ली आ गए.
इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन ने भी बाद में इस बात की पुष्टि की थी कि फैसले के एक दिन पहले, 11 जून को रे और कानून मंत्री हरि राम गोखले ने एक साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट में पेश की जाने वाली अपील के ड्राफ्ट पर चर्चा की थी.
इंदिरा को 5 मामलों में मिली थी राहत
12 जून, 1975 की सुबह दस बजने से पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्ट रूम नंबर 24 खचाखच भर चुका था. प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ ही पूरे देश और दुनिया की निगाहें भी जस्टिस सिन्हा के फैसले पर टिकी थीं. जस्टिस सिन्हा ठीक दस बजे अपने चेंबर से कोर्ट रूम में आए. शुरुआत में ही उन्होंने साफ कर दिया कि राजनारायण की याचिका में उठाए गए कुछ मुद्दों को उन्होंने सही पाया है. हालांकि राजनारायण की याचिका में जो सात मुद्दे इंदिरा गांधी के खिलाफ गिनाए गए थे, उनमें से भ्रष्टाचार से जुड़े पांच मामलों में उन्होंने गांधी को राहत दे दी थी.
लेकिन जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (7) के तहत उन्होंने इंदिरा गांधी को दो मुद्दों पर चुनाव में भ्रष्ट और अनुचित साधन अपनाने का दोषी पाया. पहला तो यह कि इंदिरा गांधी के सचिवालय में ओएसडी (विशेष कार्य अधिकारी) यशपाल कपूर को उनका चुनाव एजेंट बनाया गया जबकि उस समय तक वह सरकारी अधिकारी थे. उन्होंने 7 जनवरी से इंदिरा गांधी के लिए चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया था जबकि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा 13 जनवरी को दिया जिसे 25 जनवरी को स्वीकार किया गया. दूसरा मामला था, श्रीमती गांधी की चुनाव सभाओं के मंच बनवाने में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की मदद लेना. इन अधिकारियों ने कथित रूप से उन सभाओं के लिए सरकारी खर्चे पर लाउडस्पीकरों और शामियानों की व्यवस्था कराई थी.
जस्टिस सिन्हा ने अपने 258 पृष्ठ के फैसले में लिखा कि इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारियों और उत्तर प्रदेश की सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया. जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत चुनाव कार्यों के लिए इनका इस्तेमाल गैर-कानूनी था. इन्हीं दो मुद्दों को आधार बनाकर उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा का चुनाव निरस्त कर दिया और उन्हें फैसले की तारीख से छह साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था.
न सिर्फ भारत में, बल्कि दुनिया के इतिहास में भी संभवत: यह पहला मौका था, जब किसी हाई कोर्ट के जज ने पद पर रहते किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ इस तरह का कोई फैसला सुनाया हो! इसके बारे में देश-विदेश में तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं. अधिकतर प्रतिक्रियाओं में जस्टिस सिन्हा के फैसले की सराहना करते हुए उन्हें एक ईमानदार, न्यायप्रिय, साहसी और निडर जज करार दिया गया लेकिन तत्कालीन सत्ता गलियारों में उनकी तीखी आलोचना भी हुई.
हालांकि जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले के साथ स्थगनादेश भी जारी करते हुए इंदिरा गांधी को उनके फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए बीस दिनों की मोहलत भी दी थी. राजनारायण के वकील शांति भूषण अफसोस जाहिर करते हुए कोर्टिंग डेस्टिनी (पृष्ठ 137) में लिखते हैं, संयोग से मैं उस दिन, 12 जून को, इलाहाबाद में नहीं बल्कि किसी अन्य मुकदमे के सिलसिले में बंबई में था. मैं उस दिन यहां होता तो इस स्टे के लिए अपील का पुरजोर विरोध करता क्योंकि अतीत में ऐसे बहुत सारे मामलों में मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों के चुनाव में भ्रष्ट आचरण साबित होने पर अदालत ने उनके चुनाव को निरस्त कर उनके चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया था और सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें स्टे नहीं मिला था. सबको पद त्याग करना पड़ा था. अगर मैं 12 जून को वहां, हाई कोर्ट में होता तो शायद इस मामले में भी इंदिरा गांधी को स्टे नहीं मिलता और भारत का राजनीतिक इतिहास कुछ और लिखा जाता.
फैसले के समय श्रीमती गांधी के वकील सतीश चंद्र खरे भी कश्मीर में थे. फैसले की तिथि सामने आते ही उन्हें विशेष दूत से खबर भिजवा कर इलाहाबाद बुलवाया गया था. वह 11 जून की शाम को ही इलाहाबाद पहुंचे थे.
‘चींटी मारने के लिए हथौड़े का इस्तेमाल’
अमेरिकी मूल की लेखिका कैथरीन फ्रैंक ने इंदिरा : दि लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी में लंदन के मशहूर अखबार टाइम्स की टिप्पणी को उद्धरित किया जिसमें जस्टिस सिन्हा के फैसले को कुछ ज्यादा ही कठोर करार देते हुए लिखा था कि यह तो ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर प्रधानमंत्री की बर्खास्तगी जैसा है. कुछ इसी तरह की टिप्पणी लंदन के ही गार्जियन अखबार ने भी की थी. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए अपनी पुस्तक एक जिंदगी काफी नहीं में लिखा, चुनाव से जुड़ा कानून कितना भी सख्त क्यों न हो, मेरी अपनी राय में यह फैसला चींटी को मारने के लिए हथौड़े का इस्तेमाल करने की तरह ही था.
लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले के आधार पर जय प्रकाश नारायण एवं विपक्ष के नेताओं तथा मीडिया में भी बड़े पैमाने पर गांधी के पद त्याग का दबाव बनाया जाने लगा. हालांकि प्रधानमंत्री सचिवालय में उस समय प्रधान सचिव रहे पीएन धर ने अपनी पुस्तक इंदिरा गांधीः दि इमरजेंसी ऐंड इंडियन डेमोक्रेसी में लिखा है, जे पी और उनके नेतृत्व में विपक्ष ने जस्टिस सिन्हा के फैसले के एक अन्य पक्ष की उपेक्षा की जिसमें उनने अपने फैसले के खिलाफ स्थगनादेश जारी करते हुए इंदिरा गांधी को इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए करीब 3 हफ्ते की मोहलत दी थी.
सुप्रीम कोर्ट से अधूरी राहत!
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के 11 दिन बाद, 23 जून, 1975 को इंदिरा गांधी के वकील फ्रैंक एंथोनी ने जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए दरख्वास्त की कि हाई कोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक लगाई जाए. गांधी की पैरवी के लिए मशहूर वकील एन ए (ननी अर्देशिर) पालखीवाला को भी बुलाया गया जिन्हें गांधी कभी प्रतिक्रियावादियों का वकील कहती थीं. राजनारायण की तरफ से शांति भूषण ही हाईकोर्ट में भी पेश हुए. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट की ग्रीष्मकालीन अवकाश पीठ के जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने अपने अंतरिम आदेश में कहा कि वे इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे.
हालांकि उन्होंने गांधी को कुछ राहत देते हुए उन्हें लोकसभा की सदस्य बने रहने की व्यवस्था दी लेकिन यह भी कहा कि वह संसद में आ सकती हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकतीं, कुछ बोल नहीं सकतीं और मतदान भी नहीं कर सकतीं. यह कुछ ऐसा ही था कि वह पद पर तो बने रहतीं, लेकिन उस पद की शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकती थीं.
सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम फैसले के आधार पर भी गांधी चाहतीं तो अंतिम फैसला आने तक प्रधानमंत्री के पद पर बने रहकर सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार कर सकती थीं. विपक्ष भी सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार कर सकता था. लेकिन दोनों पक्षों की तैयारी तो कुछ और ही लगती थी. बाद में जस्टिस अय्यर ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा था कि उन पर इस केस को लेकर दबाव बनाने की कोशिश हुई थी. उन्होंने स्वीकार किया था कि देश के तत्कालीन कानून मंत्री हरि राम गोखले ने उनसे मिलने के लिए फोन किया था.
विपक्ष ने शुरू की दबाव की राजनीति
सुप्रीम कोर्ट से मिली अधूरी राहत के बाद विपक्ष ने गांधी पर पद त्याग के लिए राजनीतिक दबाव बनाना शुरू कर दिया. पूर्व समाजवादी, सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण विपक्ष ने गांधी का त्यागपत्र होने तक राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास से लेकर देश के अन्य हिस्सों में भी धरना-प्रदर्शन और घेराव का कार्यक्रम बना लिया था.
25 जून की शाम को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में हुई विपक्ष की बड़ी रैली में जयप्रकाश नारायण ने इलाहाबाद हाई कोर्ट और सर्वोच्च न्यायालय के अंतरिम फैसले के मद्देनजर श्रीमती गांधी की सरकार को अनैतिक और असंवैधानिक करार देते हुए आम जनता से इसके खिलाफ सविनय अवज्ञा का जबकि सेना, पुलिस और सुरक्षा बलों से सरकार के अवैध आदेश नहीं मानने का आह्वान किया था. लेकिन गांधी भी विपक्ष के राजनीतिक दबाव के आगे झुकने को तैयार नहीं थीं.
इसकी परिणति इमरजेंसी के रूप में सामने आई. गांधी ने अपने खासुल खास सलाहकारों के सुझाव पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद से देश में आंतरिक इमरजेंसी लागू करने की अधिसूचना जारी करवा दी. हालांकि इसके लिए उनके मंत्रिमंडल की सिफारिश इमरजेंसी लागू करने के घंटों बाद, 26 जून की सुबह हासिल की गई थी.
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