औरंगाबाद की धरती एक बार फिर खून से लाल हो रही है—जहां जातीय संघर्ष की चिंगारी दोबारा धधकने लगी है। इस बार मामला माली थाना क्षेत्र के सोरी गांव से सामने आया है, जहां बीती 8 जून की रात अज्ञात हमलावरों ने छत पर सोए 16 वर्षीय किशोर के सिर में गोली मारकर हत्या कर दी।
घटना के बाद गांव में तनाव की स्थिति है, और दशकों पुराने जातीय नरसंहार की विभीषिका की यादें फिर से ताजा हो गई हैं।
1983 में रफीगंज के दरमियां गांव में 6 लोगों की हत्या से हुई जातीय संघर्ष की शुरुआत।
1985 में मदनपुर के छेछनी गांव में 13 लोगों का सोते वक्त कत्लेआम और घरों में आगजनी।
1987 में दलेल चक बघोरा गांव में 54 लोगों का सामूहिक नरसंहार, जिसमें गर्भवती महिला भी शामिल थी।
2002 में गोह के मियापुर में 22 लोगों की हत्या।
2006 में पंचायत चुनाव के दौरान मुखिया प्रत्याशी समेत 7 लोगों की टारगेट किलिंग।
इन तमाम घटनाओं के बाद जब ऐसा लगा कि कानून और शासन ने इन खूनी सिलसिलों पर विराम लगा दिया है, 2025 में सोरी गांव की घटना ने फिर से ज़ख्मों को हरा कर दिया है।
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पुलिस कप्तान राहुल के अनुसार, सोरी गाँव में कुछ अज्ञात व्यक्तियों ने सोए हुए एक किशोर को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना के तुरंत बाद, पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज कर मामले की गंभीरता को देखते हुए एक विशेष टीम का गठन किया था। गठित टीम ने हर पहलू पर गहनता से जांच करते हुए तीन मुख्य संदिग्धों को धर दबोचा है।अन्य फरार आरोपियों की तलाश के लिए छापेमारी जारी है।
हालांकि गांव में तनाव अभी भी बना हुआ है, लेकिन शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया है। पुलिस लगातार मॉनिटरिंग कर रही है, ताकि हालात न बिगड़ें और कोई फिर से नरसंहार का इतिहास न दोहराए।
बहरहाल सबसे बड़ा सवाल है कि कब तक... आखिर कब तक खून बहता रहेगा जाति के नाम पर? क्या प्रशासन इस बार स्थायी समाधान दे पाएगा या इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा?

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