सृष्टि के कल्याण के लिए महादेव बने नीलकंठ,जानिए क्या है सावन का धार्मिक महत्व

सृष्टि के कल्याण के लिए महादेव बने नीलकंठ,जानिए क्या है सावन का धार्मिक महत्व

 सावन सोमवार का व्रत हिंदू धर्म में अत्यंत पुण्य दायक और आत्मिक उन्नति देने वाला माना गया है। यह न केवल भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त करने का माध्यम है, बल्कि सावन (sawan 2025 ka mahatva) भक्ति, संयम और आत्मशुद्धि की एक दिव्य साधना भी है। सावन के सोमवार का व्रत भक्तों को शिव से जुड़ने का एक पवित्र अवसर प्रदान करता है। जहां श्रद्धा, नियम और समर्पण के माध्यम से आत्मा ईश्वर के निकट पहुंचती है।

इस सावन के महीने (sawan 2025) में अनेक पौराणिक घटनाएं और देवी-देवताओं से जुड़ी दिव्य लीलाएं घटित हुईं, जो आज भी भक्ति, श्रद्धा और साधना के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। आइए जानते हैं सावन में घटित कुछ प्रमुख घटनाएं… 

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समुद्र मंथन और हलाहल विष की कथा

सावन का महीना भगवान शिव के त्याग और करुणा की याद दिलाता है। जब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तब सबसे पहले उस मंथन से हलाहल नाम का भयंकर विष निकला, जो पूरी सृष्टि को नष्ट कर सकता था।

उस समय सारी सृष्टि संकट में थी। तब भगवान शिव ने सबका कल्याण करने के लिए उस विष को स्वयं पी लिया। लेकिन उन्होंने उसे निगला नहीं, बल्कि अपने कंठ में ही रोक लिया। उसी कारण उनका गला नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए।

सावन का पवित्र महीना भगवान शिव के इसी त्याग और प्रेम की स्मृति में मनाया जाता है। भक्तगण इस महीने में शिवलिंग पर गंगाजल अर्पित करते हैं, ताकि शिवजी के तप को शीतलता मिले और उनकी कृपा हम सब पर बनी रहे।

माता पार्वती के तप की पावन कथा

सावन का महीना माता पार्वती की श्रद्धा, तपस्या और अटल भक्ति का प्रतीक माना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, माता सती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने का संकल्प लिया था। सती के शरीर त्याग के बाद उन्होंने राजा हिमालय के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया। 

सावन के ही पवित्र महीने में माता पार्वती ने कठोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया। उनकी निष्ठा और प्रेम से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया। इसलिए सावन को शिव-पार्वती के पुनर्मिलन और विवाह का पावन समय माना जाता है। 

इस महीने में कुंवारी कन्याएं अच्छे वर की कामना से व्रत रखती हैं। वहीं, विवाहित महिलाएं अपने सौभाग्य और वैवाहिक सुख की प्रार्थना के साथ श्रद्धा भाव से भोलेनाथ और माता पार्वती की पूजा करती हैं।

गंगाजल चढ़ाने की परंपरा

जब समुद्र मंथन के समय हलाहल विष निकला, तो सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने उसे ग्रहण तो किया। मगर, उसे अपने कंठ में ही रोक लिया और उनका कंठ नीला हो गया। तभी से वे नीलकंठ कहलाए।

मगर, विष की ज्वाला उनके भीतर जल रही थी। उस अग्नि को शांत करने के लिए देवताओं और ऋषियों ने उन्हें गंगाजल अर्पित किया। गंगा जल शीतलता का प्रतीक है और उसने शिवजी के ताप को ठंडक दी।

तभी से यह परंपरा है कि सावन में भक्त गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। यह केवल पूजा नहीं, बल्कि प्रेम, श्रद्धा और आभार का भाव है जिससे भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है।

कांवड़ यात्रा की शुरुआत

पौराणिक कथाओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा की शुरुआत ऋषि जमदग्नि के पुत्र भगवान परशुराम ने की थी। मान्यता है कि वे गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर निकले और उत्तर प्रदेश के पुरा गांव पहुंचकर उन्होंने भगवान शिव का अभिषेक किया। 

तभी से यह परंपरा चल पड़ी कि सावन के पावन महीने में शिवभक्त कांवड़ में गंगाजल भरकर लंबी यात्रा करते हैं और भगवान शिव को अर्पित करके उनकी कृपा प्राप्त करते हैं। यह यात्रा श्रद्धा, तप और भक्ति का जीवंत प्रतीक बन चुकी है।

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शिव के शांति रूप से खुद को जोड़ें 

सावन सोमवार केवल व्रत नहीं, शिव भक्ति का गहरा साधना-पर्व है। यह मास भगवान शिव के त्याग, करुणा और कृपा की स्मृति है। श्रद्धा, संयम और आस्था से की गई पूजा आत्मा को ईश्वर से जोड़ती है। आइए, इस सावन में शिव के शांति और प्रेम स्वरूप से स्वयं को जोड़ें। ॐ नमः शिवाय।






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