दंतेवाड़ा: बस्तर दशहरा पर्व में शामिल होने जाने से पूर्व मांई दंतेश्वरी व मावली माता न सिर्फ ग्राम रक्षक घाट भैरव देव व बोदराज बाबा से अनुमति लेती हैं, बल्कि पर्व से लौटने तक नगर व इलाके की रक्षा का दायित्व भी सौंपकर जाती हैं। यही नहीं, बस्तर दशहरा पर्व से लौटने के बाद भी देव से अनुमति लेकर ही अपने मंदिर में देवी की पालकी का प्रवेश होता है। यह अनूठी परंपरा यहां प्रचलित है।
पंचमी तिथि पर बस्तर राज परिवार स्वयं यहां पहुंचकर देवी दंतेश्वरी व मावली माता को विनय पत्रिका सौंपकर न्यौता देता है। न्यौता मिलने के बाद पालकी में सवार देवी दंतेश्वरी व मावली माता के चंदन विग्रह को लेकर अष्टमी के दिन काफिला जगदलपुर के लिए रवाना होता है। इसके पहले मंदिर से निकलते ही यह काफिला जय स्तंभ चौक पर सिटी कोतवाली के सामने स्थित घाट भैरम की शिला के पास रूकता है, जहां पर देव से अनुमति मांगी जाती है। इसके बाद ही काफिला आगे बढ़ता है।
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वापसी पर भी रस्म
इसी तरह जब देवी की पालकी जगदलपुर से वापस लौटती है, तो फिर इसी शिला स्थल पर ठहरकर अनुष्ठान किया जाता है और मंदिर में वापसी की अनुमति मांगी जाती है। अनुमति मिलने पर यहां सफेद मुर्गी को चावल के दाने चुगाकर खुले में छोड़ दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी बस्तर दशहरा से उनके लिए लाया हुआ उपहार घाट समर्पित करती हैं।
मंदिर के पुजारी परमेश्वर नाथ जिया बताते हैं कि घाट भैरव देव को नगर कोतवाल का दर्जा प्राप्त है। मान्यताओं के अनुसार वे नगर की रक्षा करते हैं। इसलिए मंदिर से बाहर जाने की स्थिति में देवियां उन्हें यहां की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपकर जाती हैं, और उनकी अनुमति से ही वापस मंदिर में प्रवेश करती हैं।
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दिन ढलने से पहले होता है मंदिर प्रवेश
बस्तर दशहरा पर्व से लौटने पर मंदिर प्रवेश से पहले तक देवी का रात्रि विश्राम नगर की पुरानी सीमा से बाहर आंवराभाटा में होता है। जहां सफर की थकान मिटाने के बाद अगले दिन देवी के पुजारी, सेवादार, मांझी-मुखिया, चालकी और नागरिक पूरे लाव लश्कर व बाजे-गाजे के साथ देवी को मंदिर में लेकर आते हैं।



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