हिमालय की ऊंची चोटियों और घने जंगलों में एक ऐसा फल उगता है, जो ना केवल स्वाद में अनोखा है, बल्कि अपनी उत्पत्ति की रहस्यमयी कहानी से दुनिया को चकित कर देता है. काफल—ये नाम सुनते ही उत्तराखंड, नेपाल और हिमालयी क्षेत्रों के निवासियों के चेहरों पर मुस्कान आ जाती है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस मीठे-खट्टे फल का पेड़ कोई किसान नहीं उगा पाता?
बीज बोने, खाद डालने, पानी देने के बावजूद ये पौधा इंसानी हाथों से नहीं फूटता. लोककथाओं में इसे ‘परियों’ का फल कहा जाता है, जो रात के अंधेरे में जंगलों में इसके पेड़ लगा देती हैं. आज हम खोलेंगे इस रहस्य की परतें, जहां विज्ञान और लोक मान्यताएं एक-दूसरे से टकराती हैं.
बेहद टेस्टी है ये फल
काफल का वैज्ञानिक नाम मायरीका एसकुलेंटा (Myrica esculenta) है. ये एक सदाबहार झाड़ी या छोटा पेड़ है, जो 10 से 15 मीटर ऊंचाई तक बढ़ता है. हिमालय के 1000 से 2500 मीटर की ऊंचाई पर ये स्वाभाविक रूप से उगता है. मार्च-अप्रैल में इसके सफेद-पीले फूल खिलते हैं और मई-जून में लाल-गुलाबी रंग के छोटे-छोटे फल पकते हैं. फल का आकार चेरी जैसा होता है, स्वाद मीठा-खट्टा, जिसमें एंटीऑक्सीडेंट, विटामिन सी और फाइबर भरपूर मात्रा में पाया जाता है. स्थानीय लोग इसे ताजा खाते हैं, चटनी बनाते हैं या शरबत पीते हैं. लेकिन असली रहस्य इसकी प्रचारण (propagation) में छिपा है. वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, काफल मुख्य रूप से बीजों से फैलता है, लेकिन इसके बीजों की बाहरी परत इतनी कठोर होती है कि पानी और हवा का प्रवेश नहीं होता. इसे ‘फिजिकल डॉर्मेंसी’ कहते हैं, जिससे अंकुरण की दर बहुत कम होती है. ऐसे में आखिर ये उगता कैसे है?
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चिड़ियां बनती है जरिया
काफल के बीज जब किसान बोते हैं, लेकिन महीनों इंतजार के बाद भी कुछ नहीं होता. इसकी बाहरी परत काफी मोटी होती है. लेकिन जब पक्षी ये फल खाते हैं और बीजों को दूर-दूर फैला देते हैं, जहां प्राकृतिक परिस्थितियां अनुकूल होने पर ये उग आते हैं. हालांकि, अब समय के साथ इसमें बदलाव आने लगा है.अब नई पद्वति से काफल के बीज किसान लगाने लगे हैं और इसकी खेती करने लगे हैं. लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में लोग अभी भी लोककथाओं पर यकीन करते हैं. वो आज भी मानते हैं कि इस फल के बीज परियों द्वारा लगाए जाते हैं. बच्चे भी इन कहानियों को चाव से सुनते हैं. लेकिन असलियत तो अब आप भी जान गए होंगे.
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