जिन्हें अध्यात्मिक समागम, हिन्दू धर्म की अस्मिता का प्रतीक महाकुंभ से दिक्कतें महसूस हो रही थी,उन्हें चुनावी कुंभ में दुगुनी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, राजनीतिक समागम नही हो पा रहा है,लठ्ठ बंधन में लठ्ठ भांजे जा रहे ,लठ्ठ धारियों को सत्ता तो चाहिए अपनी पारिवारिक विरासत के बदौलत, मुद्दे उनके लिए गौण है, येन केन प्रकारेण सत्ता वरण की चाहत उन्हें अरण्य में पहुंचा रही ।वोट अरण्य में नही बसते ,सत्ता विहीन, वोट विहीन थे, अब विवेकहीन हो गए हैं ,वोट चोरी का सिगुफा नही चला ,SIR का मसला भी लोगों के सर को नही भाया ,घुसपैठियों की वकालत ,बुर्कानशीं की पहचान मतदान के लिए अखर रही है, जमीन लेके रोजगार देने वाले रोजगार का दावा कर रहे ,वों जनता के लिए रोजगार सृजित करेंगे या फिर बेनामी संपत्ति जिन गुदड़ी के लालों ने शून्य से जनसेवा के लिए राजनीति शुरू की वों ऐसे कैसे बेहिसाब सम्पत्तियों के मालिक बन गए ? जनसेवा करते कौन सा रोजगार किया इन्होंने, जिनके पास बिस्वा भर जमीन नही थी वों एकड़ों के मालिक हो गए ? स्थिति इन्हीं की बदली ,आमजन उसी परिस्थिति में जी रहा है, पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता को अपनी देहरी में गिरवी रखने से क्या सामाजिक समानता आ जाएगी? प्रतिभा सारी संततियों में ही क्यों दिखती है ? इन्हें भी किसी ने मौका दिया होगा तो फिर ये आमजनों को मौका क्यों नही देते?
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लोहिया आदर्शों की दुहाई देने वाले लोहिया जी की संतति और संपत्ति की सलाह नही मानते फिर भी कहते खुद को लोहियावादी है, लोकतंत्र में पूर्ण मत किसी को नही मिलता बहुमत ही लोकतंत्र का आधार है ,अल्पमत वाले विपक्ष के रूप में स्वीकार, लोकतंत्र में बहुमत का सम्मान नही होगा तो क्या लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रहेगा? राजनीति में किसी की स्थाई दोस्ती दुश्मनी नही होती ये कई राजनीतिज्ञों को बोलते आपने सुना होगा ,इसी वजह से सजायापता लालू जेल की जगह खुले में घूम रहा है, क्या ये किसी आम अपराधी को मिलने वाली सुविधा है ? स्वत:संज्ञान लेने वाली अदालतें भी मौन है ,सुप्रीमों की बात हो तो सुप्रीम कोर्ट भी खामोश, चपरासी भी जेल चला जाए तो नौकरी से बाहर ,मंत्री ,मुख्यमंत्री जेल जाएं तो जेल में भी बहार ही बहार है, क्या इन बेशर्मों को चुनना ही हमारा मताधिकार है ? नैतिकता विहीन लोकतंत्र की ये कैसी परिभाषा है? जिन्हें मनुस्मृति के स्मरण मात्र से पाप का अहसास होता है उन्होंने प्रथम श्रेणी से चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की नई वर्ण व्यवथा कैसे बनाई ?
जातियता मिटाने की बात कहने वालों ने जाति को संविधान में समाहित कर लिया,जातिगत आरक्षण की प्रथा ने समाज का भला कम जातियता अधिक फैलाई, राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री ,मुख्यमंत्री ,मंत्री बनने के बाद भी कोई पिछड़ा दलित कैसे? क्या ये अगड़ा कहलाने लायक उपलब्धी नही है? यदि मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद भी दलित होने का अहसास बाकी है तो फिर समदर्शी न्याय की उम्मीद बाकि रहनी चाहिए ? जाति यदि हिन्दू धर्म की बुराई है जिसकी वजह से लोग जातिविहीन धर्मों में मतांतरित हो गए तो फिर उन्हें जातिगत आरक्षण का लाभ क्यों ? क्या ये हिंदुओं की संख्या कम करने का सरकारी प्रयास नही है? भारत की राजनीति में सर्वाधिक सजग यूपी और बिहार जातीयता की जकड़न में हैं, जिसकी कीमत पूरा देश चूका रहा, क्योंकि ये रोजमर्रा की जरूरतों के लिए भी प्रवासी बन रहे जो इनकी मज़बूरी है ,आमजन को अपने शहर में रोजगार नहीं मिलता ,नेता का बेटा बाप की सीट पर चुनाव लड़ता नेता कहलाता ,पीढ़ी दर पीढ़ी लोकतंत्र में राजाओं का उदय एक ही घर में होता ,लोकतंत्र सामान अवसर देता है, क्या ये अवसर सामान है ?राजनीति का क्षरण इतना है की कोई अपने पुरुषार्थ से प्रधानमंत्री बन जाए तो भी चाय वाला उसकी स्वर्गवासी माँ के लिए अपशब्द ,क्या यही अभिव्यक्ति की आजादी है ? कर्तव्य विहीन समाज अधिकारों के लिए कितना भी लड़ लें ,पा ले ,फिर भी सभ्य नही कहला सकता । बिहार में सत्ता संघर्ष है हर व्यवस्था में कमियां ढूढ़ने वाला विपक्ष खुद की कमियों से त्रस्त है, चुनाव में पस्त होने के सारे उद्यम खुद कर रहे ,क्योंकि इनके विवेक का सूरज अस्त है, हार के बाद फिर हाहाकार होगा क्योंकि -------------------------जो अपनी कमी से नही सीखते वों सदैव कमतर ही रहतें हैं
चोखेलाल
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मुखिया के मुखारी व्यवस्था पर चोट करती चोखेलाल की टिप्पणी
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