परमेश्वर राजपूत गरियाबंद : गरियाबंद जिले से उठ रही किसानों की आवाज़ आज पूरे प्रदेश के अन्नदाताओं का दर्द बयान कर रही है। यह वह वर्ग है जो धरती से सोना उगाता है, प्रदेश का पेट भरता है और खुद भूख, बारिश, बीमारी और सिस्टम की बेरुखी झेलता है। इस साल खरीफ फसल की शुरुआत से ही किसानों की परीक्षा चल रही है—पहले रासायनिक खाद की किल्लत, फिर बे-मौसम बारिश और फसलों पर बीमारी का प्रकोप। अब जब थोड़ी बहुत उपज किसान के हाथ आई है, तो उसे बेचने के लिए एग्रीटेक पोर्टल के चक्कर में फँसाया जा रहा है।
सरकार ने डिजिटल क्रांति के नाम पर एग्रीटेक पोर्टल को किसानों के कल्याण का प्रतीक बताया था। कहा गया था कि इससे प्रक्रिया पारदर्शी और सरल बनेगी। लेकिन हकीकत इसके बिल्कुल उलट है—गरियाबंद और छुरा ब्लॉक के किसान तकनीकी त्रुटियों, पेंडिंग आवेदन और “सर्वर डाउन” जैसे बहानों के बीच पिस रहे हैं। यह वही किसान हैं जिनके पसीने से प्रदेश की अन्न नीति चलती है, पर जिनके धान का पंजीयन “तकनीक” के नाम पर अटकाया जा रहा है।
ये भी पढ़े : मुखिया के मुखारी - कलमवीर अब दस्यु सरदार बन गए
जब एग्रीस्टेक पोर्टल पर फार्मर आईडी पंजीयन की प्रक्रिया शुरू हुई थी, तब जिन किसानों की कृषि भूमि एक ही गांव में थी, उन्हें अपेक्षाकृत कम परेशानी हुई। लेकिन जिन किसानों की जमीन दो या तीन गांवों में फैली हुई है, उनके लिए यह सिस्टम शुरू से सिरदर्द साबित हुआ। ऐसे किसानों की केवल एक ही ऋण पुस्तिका के खसरे का पंजीयन संभव हो पाया, जबकि अन्य भूमि को जोड़ने का वादा करते हुए कहा गया था कि “बाद में एडिट और अपलोड का विकल्प सक्रिय किया जाएगा।” परंतु जब यह विकल्प आया, तो वह काम ही नहीं कर सका। और जब कभी-कभार सुधार का विकल्प सक्रिय भी हुआ, तो वह न पटवारी की आईडी में दिखाई दिया, न तहसीलदार की प्रणाली में। सर्वर कभी सुधार का संकेत देता है, तो अगले ही पल “सर्वर एरर” बताकर किसानों की समस्या और बढ़ा देता है। यह पूरा तंत्र किसानों के धैर्य की परीक्षा बन गया है, जबकि सरकार अभी भी एग्रीटेक पंजीयन के मोह से बाहर निकलने को तैयार नहीं दिख रही है — मानो तकनीक का यह मोह किसानों की पीड़ा से बड़ा हो गया हो।
वहीं राजस्व अमला पूरी तरह निष्क्रिय है और सीधे मुंह किसानों के सवालों के जवाब में “सिस्टम नहीं चल रहा” कह देना उनकी नई भाषा बन चुकी है। यह लापरवाही तब और खतरनाक लगती है जब यह पता चलता है कि स्थानीय राजस्व कर्मचारियों के रहते हुए भी गिरदावरी का काम एग्रीस्टेक जैसी निजी कंपनी को सौंप दिया गया। जिन लोगों को न खेत की सीमाओं का ज्ञान है, न भूमि की पहचान का अनुभव, उनसे किसानों का भविष्य तय करवाना किसी मज़ाक से कम नहीं। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है—क्या सरकार को अपने ही राजस्व तंत्र पर भरोसा नहीं, या यह “निजी हितों” की नई परत है?
पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के दौरान किसानों को ऐसी तकनीकी मुसीबतें नहीं झेलनी पड़ी थीं। प्रक्रिया भले पुरानी थी, लेकिन किसान समय पर धान बेच पाते थे। आज “डिजिटल सुधार” के नाम पर किसानों को कंप्यूटर स्क्रीन और सर्वर की त्रुटियों में उलझा दिया गया है। यह सुधार नहीं, किसान की आजीविका पर कुठाराघात है।
डबल इंजन सरकार लगातार मंचों से “किसान भगवान है” का मंत्र जपती है, लेकिन गरियाबंद के खेतों में यह भगवान आज उपेक्षित और अपमानित खड़ा है। अगर किसान भगवान है, तो उसका मंदिर यह धरती है—और इस धरती के पुजारी आज राजस्व दफ्तरों में भीख मांगने को मजबूर हैं।
सवाल सीधा है—क्या सरकार तकनीक के मोह में किसानों की जमीनी सच्चाई भूल चुकी है? किसान को इंटरनेट चाहिए या इंसाफ? डिजिटल पोर्टल की चमक-धमक से पेट नहीं भरता, पंजीयन के बाद भुगतान और खरीदी की गारंटी चाहिए।
अन्नदाता अब थक चुका है। उसकी मेहनत की हर फसल किसी न किसी सरकारी असफलता में फँस जाती है—कभी खाद की कमी, कभी बारिश का कहर, अब तकनीक की त्रुटि। सवाल यह नहीं कि सर्वर क्यों डाउन है; सवाल यह है कि शासन का दिमाग कब अपलोड होगा किसानों की समस्या पर।
अगर यह स्थिति यूँ ही बनी रही तो सरकार के “डबल इंजन” की गाड़ी खेतों की कीचड़ में फँस जाएगी। किसानों का धैर्य टूटने लगा है, और जब अन्नदाता का भरोसा टूटता है, तो सत्ता की नींव तक हिल जाती है।
एग्रीटेक पोर्टल सरकार का नहीं, किसान का होना चाहिए—सरल, पारदर्शी और जवाबदेह। तकनीक तभी सफल है जब वह इंसान के जीवन को सरल बनाए, न कि उसके पसीने की कीमत पर बोझ डाले। गरियाबंद का किसान आज यह संदेश दे रहा है—“हमें वादे नहीं, काम चाहिए; सम्मान नहीं, समाधान चाहिए।”



Comments